आज मैंने चाँद को देखा,
अधूरा था वो आज,
थी पर उसमें उतनी ही कशिश,
रुक गई थीं निगाहें वहीं,
दर्द जैसे मैं भूल गई थी |
यूँ तो ज़िंदगी भी है उसी की तरह,
कभी पूरी लगती है,
तो कभी अधूरी |
कोई तो कमी सी रहती है हर लम्हा इसमें,
हर पल कोई खलिश सी है,
कि जीवन नहीं हो पाता संपूर्ण कभी |
और कुछ तो है जो कहीं हर खालीपन को भरता है,
एहसास कराने पूर्णता का |
मैं देख रही थी चाँद को,
खुले आसमान में, तारों के साये तले,
लगा जैसे पूछ रहा हो मुझसे, मुस्कुरा रहा हो मुझे देख कर,
कह रहा हो,
"क्यूँ थम गईं तुम यूँ चलते-चलते,
क्या तलाश रही हैं तुम्हारी बेचैन निगाहें इस अंधकार की चाँदनी में ?"
कहा मैंने उसे "बस थोड़ा सा सुकून !
क्या तुम दे पाओगे मुझे?
जब नज़रें झुका कर देखती हूँ,
तो चारों ओर दिखती हैं बस दीवारें,
कहीं पत्थरों की,
कहीं नफरतों की,
खुद को जकड़ा हुआ, बेबस सा महसूस करती हूँ |
जब उठाती हूँ नज़रें और यत्न करती हूँ,
क्षितिज के पार जाने का,
हो जाएँ ताकि अलग,
निर्मलता और सरलता, यहाँ के बंधनों से,
रहें उन्मुक्त, आज़ाद,
आखिर यही तो उनकी प्रकृति है |
इस शगल में मेरे, मुझे तुम दिखते हो,
उस खुले आसमान में,
जहाँ कोई दीवारें नहीं, कोई ज़ंजीरें नहीं,
ना ही है कोई रास्ता,
बस ख्वाब हैं, वही रह सकते हैं वहाँ,
और आज ये चाँदनी है,
कुछ पूरी सी,
कुछ अधूरी सी |
क्या तुम रहोगे साथ,
क्या थामोगे मेरे ख़्वाबों का हाथ ?
माना ये तुम्हारी अपनी रोशनी नहीं,
पर इस रोशनी में जलना तो तुमने भी बहुत खूब सीखा है |
क्या दे पाओगे इन आँखों को वो शीतलता,
जो इस मन को ज़मीं पर नहीं मिल पाती?
क्या दे पाओगे तुम मुझे वो सुकून,
जिसके लिए खड़ी हूँ मैं आज यहाँ,
तुम्हें निहारते हुए ?"
मैं इंतज़ार में थी एक जवाब के,
वो मुस्कुराया और कह गया सब कुछ इन चंद लफ़्ज़ों में ,
"इन आँखों के बुझने में वक़्त है अभी,
जीने का बहाना जो चाहिए तुम्हें,
जाओ मैंने तुम्हें एक नया ख्वाब दिया!"