इमारत तो स्थिर रहती है पर डगमगा जाता है प्रतिबिम्ब,
जब आईने को सहारा नहीं मिलता,
धोखा है ये तो क्या सच है?
क्या परछाई सच है?
अगर है, तो कैसे भरोसा करे कोई... उसमें तो छवि और भी मिली होती है...
धुंधला होता है प्रतिबिम्ब, उसमे आईने की नज़र होती है...
फ़िर वो इमारत ही सच्ची होगी...
पर कैसे... सच टूट कर बिखरता तो नहीं कभी...
नींव से चोटी तक एक जैसा होता है...
कोई सहारा नहीं होता...
सच खुद ही नींव है...
सच की तलाश का सफर जाने कब से जारी है,
जाने कब ख़त्म होगा...
यूँ तो परछाई का क्या है तस्वीर से भी रिश्ता...
तस्वीरें तो अक्सर टूट जाया करती हैं...
परछाई कायम रहती है... किसी भी आकार में ढल जाती है,
कोई रंग नहीं होता इसका...
तस्वीरों में तो रंग बदल जाया करते हैं...
परछाई ही है अनंत... हर रूप में अटूट...
शायद परछाई ही सच है...