कैसा डर है ये, कैसी अनिश्चितता,
क्या डरती हूँ तुम्हें खो देने से,
या फिर बस ये तुम्हारी विमुखता का डर है,
ये द्वंद्व जकड़े है मन को,
साफ़ सोचने नहीं देता,
ये कैसा तूफ़ान है मन में,
जिसने सारा आसमान धुंधला दिया मेरा,
छीन ली है मेरी उड़ान,
कैसे हो रही है प्यार से नफ़रत,
प्रेम के जज़्बे में द्वेष की जगह ही कहाँ है,
शायद वक़्त ही मुझसे ख़फ़ा है,
तन्हाई भी है, दिल भी, दर्द भी, और तुम नहीं हो,
मेरे लिए तो तुम हो मौजूद यहीं मेरे हर एक पल में,
पर क्या तुम्हारी कल्पनाओं में मैं हूँ,
क्या थी मैं कभी?
या फिर हो पाऊँगी?
कितनी खामोश सी हैं ये तन्हाइयाँ,
अजनबी हो गई हैं जैसे,
मुझसे कुछ कहती ही नहीं,
अब तो अश्क़ भी उजागर नहीं होते,
कुछ रहा ही नहीं शायद जिसके लिए ये न बहे हों |
थक गए हैं ये भी तो अब,
शायद मैं भी |
धैर्य, कोई तो सीमा रखता होगा,
या बस सीमा को ही धैर्य रखना होगा हर बार?
ये बेफिक्री तुम्हारी मैं भी सीखना चाहती हूँ,
अपने हिस्से की शांति चाहती हूँ केवल,
हो सकता है मैं तुम्हारे प्यार के काबिल नहीं,
पर कुछ लम्हों का सुकून तो ईश्वर ने इन लकीरों में भी लिखा होगा |
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