Friday, August 3, 2012

अभी तो मेरा स्वयं होकर जीना बाकी है !!

शुरुआत की थी जहाँ से मैंने,
सवाल तो अब भी है वही,
इस ज़िंदगी का मकसद तलाशते तो ज़िंदगी नहीं गुज़ार देनी है | 
कितना बदल गया वक़्त,
वक़्त के साथ मैं,
पर आज भी तन्हाई दस्तक देती है,
इसका एहसास आज भी बिल्कुल वैसा ही है,
था जैसे पहले | 

चार दीवारी, ये सन्नाटा, जुगनुओं की वही आवाज़,
तारों की चादर, वही चाँदनी,
वही हवा, वो एक एहसास और मैं,
इस रोशन अंधेरे में,
अकेले, शांत, हलचल नहीं,
आज तो मन भी स्थिर है,
जैसे समझ गया हो जीवन का अर्थ,
पा गया हो जैसे मौन का साहस | 
जो इस स्थिति में जी ले मन,
तो फिर क्या बाकी हो पा जाना इसे?

गुज़रे कुछ साल, भागती रही खुद से दूर,
और नतीजा ये हुआ, खुद को जान गई,
'कैसे?' नहीं जान पाई मैं क्योंकि,
कि कैसे हो पाता है कोई यूँ खुद से जुदा,
नकार कर अपने ही अस्तित्व को,
आत्म-ज्ञान तो मिलता ही है,
मृत्यु पर ही सही,
तो क्या अब मैं मृत हूँ?

शरीर तो धोखा ही था सदैव,
पर क्या मन अब नहीं रहा?
शायद ये एक हद तक सत्य है !
कुछ इच्छाएँ बाकी हैं,
शरीर छोड़ने नहीं देतीं | 
वरना मन तो है स्वच्छंद, आज़ाद,
शरीर में कैद नहीं रह पाता मेरा,
कब का उड़ जाता,
एक नए आकाश में लीन होने | 
पर है आज भी यहीं !

क्या बदला फिर इन सालों में?
कुछ बेड़ियाँ तोड़ पाई हूँ,
पर नई तैयार हैं, मुझे फिर कैद करने को आतुर,
और यहाँ, मैं मांग रही हूँ तन्हाइयों से हौसला,
अपनी स्वच्छंदता खोज लेने का,
भर देना अपने आसमां को,
संभावनाओं से अनंत,
और भरने का अपने मन की असली उड़ान,
जिसे पूरा करने मन अब भी बँधा है शरीर के साथ,
कुछ है जो बाकी है कर जाना,
तभी तो अभी निर्जीवता में प्राण बाकी हैं,

है अभी तो आसमां के तारे गिनना बाकी,
अभी तो मेरा स्वयं होकर जीना बाकी है !!

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